History of coins
आज डिजिटल करेंसी और प्लास्टिक मनी का दौर है लेकिन सभ्यता के विकास की शुरुआत में मानव ने वस्तु विनिमय से आपसी लेन देन की शुरुआत की फिर सिक्कों को बनाया था. कई राजाओं ने अपने राज्य की मुद्रा का निर्माण सिक्कों के रूप में किया था. आज विश्व के बहुत से देशों में कुछ प्राचीन सिक्के हैं जो चलन में बंद हो चुके हैं लेकिन इनकी मिन्टिंग बंद हो जाने और बहुत अधिक प्राचीन हो जाने के कारण इन सिक्कों में मार्किट वैल्यू बहुत अधिक हो गयी है. आइये इस लेख में इन्हीं सिक्कों के बारे में जानते हैं.
इन सिक्कों के विषय के अंदर हमें संस्कृति आर्थिक और सामाजिक इतिहास छिपा हुआ मिलता है परंतु भारतीय सिक्के सिलसिलेवार इतिहास को प्रस्तुत करने के लिए हिंदी में हम आपको बताएंगे इतिहास और पुरातत्त्वप्रेमियों के लिए सिक्कों के इतिहास की जानकारी बहुत महत्त्वपूर्ण है। सिक्कों पर अंकित लेखों और लिपियों के माध्यम से कई बार अज्ञात तथ्य सामने आते हैं और संदिग्ध समझे जाने वाले तथ्यों की पुष्टि भी होती है। इस प्रकार सिक्कों के इतिहास के जरिये विभिन्न कालखंडों और राजवंशों के इतिहास के सम्बन्ध में प्रामाणिक तथ्य सामने आते रहे हैं। भारतीय सिक्कों का इतिहास पुस्तक से सिक्कों के जन्म और विकास के बारे में पता चलता है , साथ ही सिक्कों का क्या व्यापारिक महत्त्व है , इसकी भी जानकारी मिलती है।
इससे आप जानेंगे कि सबसे पहले सिक्कों का चलन लिदिया में हुआ , फिर कैसे दूसरे राज्यों ने इन्हें चलन में लिया। कौन से समय में । कौन से राजा ने सिखों को कब बनवाया और कब चलाया और उनके जैसी कौन कौन से सिक्के प्रचलित है और उनके माप तोल के लिए सिक्कों पर क्या अंकित किया जाता था उसके बारे में हम चर्चा करेंगेवे चाँदी के थे , या सोने या ताँबे के - इन सबकी जानकारी बहुत ही सहज और रोचक भाषा में प्रस्तुत करती है। भारतीय सिक्कों का इतिहास ऐतिहासिक दस्तावेजों की एक अद्वितीय श्रृंखला प्रदान करता है। भारत में सिक्कों का इतिहास 2700 वर्ष पुराना है। भारत के इतिहास में विशाल साम्राज्यों , छोटे राज्यों आदि सभी ने अपने सिक्के ढलवाना जारी रखा। विभिन्न धातुओं में सिक्कों की कई हजारों किस्मों का एक लौकिक ऐतिहासिक खजाना था। ये ऐतिहासिक भारतीय सिक्के किंवदंतियों की बनावट को अपने अस्तित्व में बुनते हैं।
सिक्के एक व्यक्ति को सही जानकारी प्रस्तुत करते हैं। हालांकि भारत में , प्राचीन काल के साहित्य में बहुत कुछ नहीं है जो आधुनिक अर्थों में ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में काम कर सकता है। यह सिक्के हमें पुरातात्विक तथ्यों और उनके प्रेमचंद सामाजिक आर्थिक राजनीतिक संस्कृति और प्रशासनिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं और यह हमें इतिहास के बारे में बहुत ही स्टिक जानकारी देते हैं जिससे हम यह समझ सकते हैं कि सिक्के हमारे जीवन में कितने अत्यावश्यक है और हमें सिक्कों से समाज में क्या अवधारणा प्रस्तुत की जा सकती है सिक्के हमें वहां के राजा और वहां के शासकों के बारे में उनके शासन के बारे में और जनता में प्रचलित सिखों से हमें वहां के रहन सहन के बारे में बहुत कुछ पता चलता है
भूमिका
भारत में सिक्के ढालने का एकमात्र अधिकार भारत सरकार को है। सिक्का निर्माण का दायित्व समय - समय पर यथासंशोधित सिक्का निर्माण अधिनियम , 1906 के अनुसार भारत सरकार का है। विभिन्न मूल्यवर्ग के सिक्कों के अभिकल्प तैयार करने और उनकी ढलाई करने का दायित्व भी भारत सरकार का है। सिक्कों की ढलाई भारत सरकार के चार टकसालों यथा मुंबई , अलीपुर ( कोलकाता ) , सैफाबाद ( हैदराबाद ) , चेरियापल्ली ( हैदराबाद ) और नोयडा ( उ . प्र .) में की जाती है। पूर्व में प्राचीन भारत में सिरका में सिक्कों की सबसे पहली शुरुआत हुई थी . उस समय से , सिक्के को पैसे का सबसे सार्वभौमिक अवतार माना जाने लगा था। धार्मिक इतिहास के क्षेत्र में , भारतीय सिक्के समान रूप से पर्याप्त भूमिका निभाते हैं।
कुषाणों के सिक्के , जिन्होंने पहली और दूसरी शताब्दी के दौरान उत्तर - पश्चिमी भारत में शासन किया था , कई यूनानी , ईरानी , बौद्ध और ब्राह्मण देवी - देवताओं के पुतलों का समर्थन करते हैं। मानव रूप में बुद्ध का प्रतिनिधित्व कनिष्क के सिक्कों पर पहली बार देखा गया है। गुप्त साम्राज्य के सिक्कों पर , देवी दुर्गा , गंगा और देवी लक्ष्मी की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं।
अरबों ने 712 ईसवीं में भारत के सिंध प्रांत को जीत कर उस पर अपना प्रमुख स्थापित किया। बारहवीं शताब्दी तक दिल्ली के तुर्क सुल्तानों ने लंबे समय से चली आ रही अरबी डिजाइन को हटाकर उनके स्थान पर इस्लामी लिखावटों को मुद्रित कराया। इस मुद्रा को टंका कहा जाता था। दिल्ली के सुल्तानों ने इस मौद्रिक प्रणाली का मानकीकरण करने का प्रयास किया और फिर बाद में सोने , चांदी और तांबे की मुद्राओं का प्रचलन शुरू हो गया। सन् 1526 में मुगलों का शासनकाल शुरू होने के बाद समूचे साम्राज्य में एकीकृत और सुगठित मौद्रिक प्रणाली की शुरूआत हुई। अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी ( 1540 से 1545) ने चांदी के ‘ रुपैये ’ अथवा रुपये के सिक्के की शुरूआत की। पूर्व - उपनिवेशकाल के भारत के राजे - रजवाड़ों ने अपनी अलग मुद्राओं की ढलाई करवाई , जो मुख्यत : चांदी के रुपये जैसे ही दिखती थीं , केवल उन पर उनके मूल स्थान ( रियासतों ) की क्षेत्रीय विशेषताएं भर अंकित होती थीं।
प्रारंभ में छोटे राज्य थे जहां वस्तु विनिमय अर्थात् एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान - प्रदान संभव था। परंतु कालांतर में जब बड़े - बड़े राज्यों का निर्माण हुआ तो यह प्रणाली समाप्त होती गई और इस कमी को पूरा करने के लिए मुद्रा को जन्म दिया गया। इतिहासकार के . वी . आर . आयंगर का मानना है कि प्राचीन भारत में मुद्राएं राजसत्ता के प्रतीक के रूप में ग्रहण की जाती थीं। परंतु प्रारंभ में किस व्यक्ति अथवा संस्था ने इन्हें जन्म दिया , यह ज्ञात नहीं है। अनुमान यह किया जाता है कि व्यापारी वर्ग ने आदान - प्रदान की सुविधा हेतु सर्वप्रथम सिक्के तैयार करवाए।
संभवत : प्रारंभ में राज्य इसके प्रति उदासीन थे। परंतु परवर्ती युगों में इस पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित हो गया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मुद्रा निर्माण पर पूर्णत : राज्य का अधिकार था। कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में मुद्राओं का प्रचलन विदेशी प्रभाव का परिणाम है। वहीं कुछ इसे इसी धरती की उपज मानते हैं। विल्सन और प्रिंसेप जैसे विद्वानों का मानना है कि भारत भूमि पर सिक्कों का आविर्भाव यूनानी आक्रमण के पश्चात् हुआ। वहीं जान एलन उनकी इस अवधारणा को गलत बताते हुए कहते हैं कि ‘ प्रारम्भिक भारतीय सिक्के जैसे ‘ कार्षापण ’ अथवा ‘ आहत ’ और यूनानी सिक्कों के मध्य कोई सम्पर्क नहीं था।
उत्पत्ति स्थान के अलावा मुद्रा के जन्म काल में भी विद्वानों में मतभेद हैं। ज्यादातर विद्वान् मानते हैं कि भारत में सिक्के 800 ई . पू . प्रकाश में आये। वहीं डा . डी . आर . भण्डारकर तथा विटरनित्ज जैसे विद्वान् भारत में सिक्कों की प्राचीनता 3000 ई . पू . के आस - पास बताते हैं। जन्म स्थान और काल में बेशक विवाद हो लेकिन सिक्कों के निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली धातु के संबंध में कोई विवाद नहीं है।
सिक्कों के निर्माण के लिए अनेक धातुएं प्रयोग में लाई जाती थीं। इनमें सोना , चांदी तथा तांबा प्रमुख धातुएं थीं। सोना तो भारत में विपुल मात्रा में था। तांबा भी अयस्क के रूप में प्राप्त होता था। परंतु चांदी बहुत कम मात्रा में उपलब्ध थी इसलिए इसका आयात किया जाता था। सातवाहन वंश ने मुद्रा निर्माण में एक नया प्रयोग किया। उन्होंने मुद्रा निर्माण के लिए सीसे का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया। विद्वान् पेरीप्लस का विवरण है कि भारतीय लोग सीसे का बाहर से आयात करते थे। इतिहासकार प्लिनी ने इसका समर्थन करते हुए कहा है कि हिन्द यवन शासकों ने एक और धातु मुद्रा निर्माण हेतु प्रयुक्त किया जिसे निकिल के नाम से जाना जाता है। कभी - कभी सिक्कों के निर्माण हेतु पोटीन , कांस्य तथा पीतल का भी प्रयोग किया जाता था।
पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि 7 वीं शताब्दी ई० पू० के लगभग पश्चिमी एशिया के अन्तर्गत यूनानी नगरों में सर्वप्रथम सिक्के प्रचलन में आये। वैदिक ग्रंथों में आये ‘ निष्क ‘ और ‘ शतमान ‘ का प्रयोग वैदिक काल में सिक्कों के रूप में भी होता था। भारत में धातु के सिक्के सर्वप्रथम गौतमबुद्ध के समय में प्रचलन में आये , जिसका समय 500 ई० पू० के लगभग माना जाता है। बुद्ध के समय पाये गये सिक्के ’ आहत सिक्के ‘ कहलाये। इन सिक्कों पर पेड़ , मछली , साँड़ , हाथी , अर्द्धचंद्र आदि की आकृति बनी होती थी। ये सिक्के अधिकांशतः चाँदी के तथा कुछ ताँबे के बने होते थे। ठप्पा मार कर बनाये जाने के कारण इन सिक्कों को ‘ आहत सिक्का ’ कहा गया।
आहत सिक्कों का सर्वाधिक पुराना भण्डार पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध से प्राप्त हुआ है। मौर्यकाल में सोने के सिक्के के रूप में ‘ निष्क ’ तथा ‘ सुवर्ण ’ का , चाँदी के सिक्के के रूप में ‘ कार्षापण ’ या ‘ धरण ’ का , ताँबे के सिक्के के रूप में ‘ मापक ’ तथा ‘ काकण ’ का प्रयोग होता था। भारत में सर्वप्रथम भारतीय यूनानियों ने सोने के सिक्के जारी किये। सोने के सिक्के सर्वप्रथम बड़े पैमाने पर कुषाण शासक कडफिसस द्वितीय द्वारा चलाये गये। कनिष्क ने अधिक मात्रा में ताँबे के सिक्के जारी किये। मौर्योत्तर काल में सोने के निष्क , सुवर्ण तथा पल , चाँदी का शतमान , ताँबे का काकिनी सिक्का प्रचलन में था। चार धातुओं सोना , चाँदी , ताँबा तथा सीसे के मिश्रण से ‘ कार्षापण ’ सिक्का बनाया जाता था। गुप्तकाल में सर्वाधिक सोने के सिक्के जारी किये गये परन्तु इनकी शुद्धता पूर्वकालीन कुषाणों के सिक्के की तुलना में कम थी। गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के ‘ दीनार ’ कहे जाते थे।
दैनिक लेन - देन में ‘ कौड़ियों का प्रयोग किया जाता था। कुषाणकालीन सोने के सिक्के 124 ग्रेन के तथा गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्के 144 ग्रेन के होते थे। सोने , चाँदी , ताँबा , पोटिन तथा काँसा द्वारा बने सर्वाधिक सिक्के मौर्योत्तर काल में जारी किये गये। 650 ई० से 1000 ई० के बीच सोने के सिक्के प्रचलन से बाहर हो गये। 9 वीं सदी में प्रतिहार शासकों के कुछ सिक्के मिलते हैं। 7 वीं सदी से 11 वीं सदी के मध्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश , राजस्थान , एवं गुजरात में ‘ गधैया सिक्के ‘ पाये गये। इन सिक्कों पर अग्निवेदिका का चित्रण है। ग्रीक शासकों के ड्रामा तांबे के सिक्कों के तर्ज पर प्रतिहार एवं पाल शासकों ने चांदी ‘ द्रम्म ’ सिक्के जारी किये।
कुछ सिक्कों के बारे में निम्नानुसार बताया गया इस प्रकार है
1. आहत सिन्के -
- ये सबसे प्राचीन सिक्के हैं, इन पर कोई भी लेख नहीं पाया जाता है। सर्वप्रथम ' जैम्स प्रिंसेप' ने 1835 ई. में आहत सिक्कों को ' पंचमार्ड सिक्के' कहा।
2. कुसींदा
- सिरोही में स्थित इस स्थान से ' गधैया सिक्कों' का सबसे बड़ा भंडार प्राप्त हुआ है।
3.बैराठ (विराटनगर) -
- जयपुर में स्थित इस स्थान से इंडो-ग्रीक नरेश ' मिनांडर' के 16 सिक्के प्राप्त हुए हैं।
4.गुरारा-
- सीकर में स्थित इस स्थान से ' शेखावाटी में चांदी के आहत सिक्कों का सबसे बड़ा भंडार' प्राप्त हुआ है।
5. रेढ-
- टोंक में स्थित इस स्थान से ' राजस्थान में चांदी के आहत सिक्कों का सबसे बड़ा भंडार' प्राप्त हुआ है।
6. नगर/ कर्कोट -
- टोंक में स्थित इस स्थान से ' सबसे छोटे व सबसे हल्के ताम्र सिक्कों का सबसे बड़ा भंडार' प्राप्त हुआ है।
7.नगलाछेल
- भरतपुर की बयाना तहसील मे स्थित इस स्थान से ' गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा भंडार' प्राप्त हुआ है।
8.झाड़शाही
- जयपुर में कच्छवाहा वंश द्वारा प्रचलित सिक्के। ज्ञातव्य है कि झाड़शाही एक बोली का प्रकार भी है।
9. चित्तौड़ी-मेवाड़
- रियासत काल में मेवाड़ में प्रचलित सिको का नाम है
- कचहरी मेवाड़ में यह सिक्का प्रचलित था
10.चांदोड़ी-
- उदयपुर की राजकुमारी चांद कंवर द्वारा अपने नाम से चलाए गए सोने के सिक्के
11. सरूपशाही / स्वरूपशाही
- मेवाड़ में प्रचलित इन सिक्कों की कीमत 17 आने की थी
- कचहड़ी-मेवाड़ में प्रचलित सिक्का।
12.ढींगला. त्रिशूलिया, भिलाड़ी-
- मेवाड़ की टकसाल में निर्मित तांबे के सिक्के।
13.अखयशाही
- जैसलमेर रियासत में प्रचलित सिक्के।
14. कलदार
- ब्रिटिश काल में राजस्थान में प्रचलित सिक्के।
15.शाहआलमी व भिलाड़ी
- मेवाड़ में मुगल शासक मोहम्मद शाह द्वारा चलाये गये सिक्के
16.सालिमशाही
- प्रतापगढ़ के शासक सलिम शाह द्वारा चलाए गए सिक्के
17.एलची
- यह सिक्के अकबर ने में मेवाड़ में चलाए थे
कई बार मुद्रा निर्माण में मिश्रित धातुओं का भी प्रयोग किया जाता था। धातुओं को कठोर बनाने में और गिरती हुई अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इनका उपयोग सिक्कों में किया जाने लगा। पोटीन कई धातुओं के मिश्रण से बनता था इसलिए इसे भ्रष्ट धातु कहा जाता था। कहीं - कहीं लोहे के सिक्के भी प्रचलन में थे। इसके अलावा मुद्रा के रूप में कौड़ियों का प्रचलन भी व्यापक क्षेत्र में था।